
कहानी उस औरत की, जो इंसाफ चाहती थी… पर अब वही आवाज़ किसी की आंखों में चुभने लगी है!
खबरी न्यूज नेशनल नेटवर्क
चकिया (चंदौली)।
वो जमीला थी… सीधी-सादी, मगर हक के लिए खड़ी होने वाली। जिसने सोचा था कि “न्याय” नाम की कोई चीज़ आज भी जिंदा है। जिसने अपने बच्चों के भविष्य, अपने हिस्से की जमीन, और अपने आत्मसम्मान के लिए अदालत की चौखट पर दस्तक दी थी। पर आज वही जमीला अब डर में जी रही है — क्योंकि न्याय मिलने के बाद कुछ लोग अब उसका गला घोटने पर उतारू हैं।कहते हैं ना, “जब कोई औरत अन्याय के खिलाफ खड़ी होती है, तो समाज के कुछ लोग उसे तोड़ने में जुट जाते हैं।”
जमीला के साथ भी कुछ वैसा ही हुआ।



🧾 प्रशासनिक पक्ष – “निर्णय रिकॉर्ड के आधार पर लिया गया”
जिला प्रशासन की ओर से सफाई दी गई है कि पूरा मामला “रिकॉर्ड और अभिलेखों” के आधार पर निपटाया गया है।
एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया –
“तहसीलदार ने जो आदेश पारित किया है, वह पत्रावली में उपलब्ध अभिलेखों और रिपोर्ट के आधार पर किया गया।
प्रार्थिनी की आपत्ति प्राप्त हुई है, जिसे उच्च स्तर पर भेज दिया गया है।
अगर किसी बिंदु पर त्रुटि पाई जाती है, तो आवश्यक जांच की जाएगी।”
बात सही है — प्रक्रिया का पालन ज़रूरी है।
पर सवाल यह है कि जब “सत्य” और “कागज” आमने-सामने आ जाएं, तो किसे प्राथमिकता दी जाए?
विवाद का मूल – ‘निर्देश बनाम आदेश’
स्थानीय लोगों का कहना है कि यह विवाद सिर्फ किसी जमीन या आदेश का नहीं, बल्कि “निर्देश बनाम आदेश” की लड़ाई है।
किसी ने किसी के कहने पर आदेश दिया, तो किसी ने उसके खिलाफ अपील ठोक दी।
बीच में पिस गई जमीला — जो न तो राजनीति समझती है, न प्रशासनिक तकनीकी भाषा।
यह विवाद भ्रष्टाचार से ज़्यादा प्रक्रियागत भ्रम और विश्वास के संकट से जुड़ा हुआ लगता है।
लोग कह रहे हैं –
“अगर प्रशासन जनता की बात सुने बिना सिर्फ फाइलों पर निर्णय देगा,
तो फिर गरीब किसके पास जाए?”


जमीला की आँखों में सवाल — आखिर उसका कसूर क्या था?
आज वो थाने और तहसील के चक्कर काटते हुए टूट चुकी है।
जिस औरत ने कभी उम्मीद की थी कि न्याय उसके जीवन में उजाला लाएगा,
अब वही औरत कहती है –
“काश! मैंने आवाज़ ही न उठाई होती…”
उसके घर में अब सन्नाटा है। बच्चे खामोश हैं, पति चिंतित है, और गांव के लोग बस फुसफुसाते हैं —
“वो देखो, वही जमीला है… जिसने हक मांगा था।”
🕯️ जब इंसाफ डर में बदल जाए…
यह कहानी सिर्फ जमीला की नहीं है,
बल्कि हर उस नागरिक की है जो सिस्टम पर भरोसा करता है।
क्योंकि आज सवाल सिर्फ इतना नहीं है कि किसे आदेश मिला या खो गया,
सवाल यह है कि न्याय के नाम पर डर क्यों बढ़ रहा है?
अगर कोई आवाज़ उठाए और उसके बाद उसका जीना मुश्किल हो जाए,
तो क्या यह लोकतंत्र की पराजय नहीं?
📜 प्रशासन की जिम्मेदारी – सिर्फ जांच नहीं, संवेदना भी
जमीला जैसे मामलों में यह ज़रूरी है कि जांच केवल कागजों तक सीमित न रहे।
क्योंकि हर आदेश के पीछे एक इंसान की पीड़ा होती है।
जरूरत है कि प्रशासन अपनी संवेदनशीलता दिखाए, न कि औपचारिकता।
जैसा कि एक वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता ने कहा –
“न्याय जब केवल फाइलों पर लिखा जाता है, तो जमीला जैसी महिलाएं उसकी कीमत अपने डर से चुकाती हैं।”
💬 गांव की आवाज़ें – डर और दुविधा का माहौल
गांव के लोगों का कहना है कि जमीला का मामला अब सामाजिक डर में बदल गया है।
कोई खुलकर बोलना नहीं चाहता, क्योंकि सब जानते हैं —
“जिसने आवाज़ उठाई, वही निशाने पर आ गया।”

