संस्कार नहीं, अब कैमरा तय करता है रस्मों का परिचलन!”
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“परंपराएँ बदल रही हैं… पर क्या भावनाएँ भी?” “संस्कारों को जिंदा रखें।”
खबरी न्यूज़ नेशनल नेटवर्क
शादी, भारतीय संस्कृति का वह अहम पहलू है जहाँ परंपरा, रीति-रिवाज और सामाजिक मान्यताएँ गहराई से जुड़ी रहती हैं। लेकिन वक्त के साथ शादी की कई रस्में अपना मूल स्वरूप खोती जा रही हैं। हल्दी की रस्म से लेकर बारात, फेरे और विदाई तक, सब कुछ अब पहले जैसा नहीं रहा। आधुनिकता, दिखावे और सोशल मीडिया के इस दौर में सदियों पुरानी परंपराएँ धीरे-धीरे इतिहास के पन्नों में सिमटती जा रही हैं।
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मेहदी की रस्म प्रोफेशनल फोटोग्राफरों के हवाले
पहले हल्दी की रस्म घर के आँगन में, परिवार की औरतों के बीच बड़े स्नेह और आत्मीयता से होती थी। दुल्हन या दूल्हे को पीली हल्दी के लेप से स्नान कराना शुभ माना जाता था। इसमें एक अपनापन, एक संकोचभरी खुशी होती थी। आज, यह रस्म प्रोफेशनल फोटोग्राफरों और मेहँगे सेटअप्स के लिए मात्र एक “शूट” बन गई है। हल्दी अब बाजार से आई तैयार ‘स्पा हल्दी’ या ‘ऑर्गेनिक हल्दी पेस्ट’ से लगाई जाती है। घर के बने घोल और दादी-नानी के नुस्खे अब किस्से बनकर रह गए हैं।
संगीत और मेहंदी: पारिवारिक आयोजन से इवेंट कंपनी का शो
जहाँ पहले मेहंदी और संगीत छोटे से हॉल या घर के किसी कोने में ढोलक और चुटकुलों के बीच मनाया जाता था, आज वह बड़े-बड़े रिसॉर्ट्स और 5 स्टार होटलों में इवेंट मैनेजमेंट कंपनियों द्वारा डिज़ाइन किया जाता है। मेहंदी के गाने, घर की बहनों और मौसियों की आवाज़ में, अब डीजे की तेज़ धुनों में खो गए हैं। पारंपरिक लोकगीतों की जगह अब बॉलीवुड मिक्स या वेस्टर्न थीम्स ने ले ली है।
आधे-अधूरे मंत्र और रील्स की जल्दबाजी
शादी का सबसे पवित्र हिस्सा – सप्तपदी या सात फेरे – जो जीवन भर के बंधन का वचन है, आजकल टाइम लिमिट और वीडियोग्राफी शेड्यूल के हिसाब से संपन्न होता है। कई बार तो पंडित भी रस्मों को तेजी से पूरा करते हैं ताकि “रेड कार्पेट” एंट्री, फुल ब्राइडल शूट और अन्य तैयार किए गए सेगमेंट समय से हो सकें। दूल्हा-दुल्हन भी कई बार पूरी रस्मों का मर्म समझे बिना केवल एक औपचारिकता की तरह फेरे लेते हैं।
विदाई: आंसुओं से मुस्कान तक का बदला सफर
विदाई, जो पहले माता-पिता और भाई-बहनों के लिए एक बेहद भावुक पल होता था, आज ‘सेल्फी विद ब्राइड’ और ‘स्माइली विद फेमिली’ जैसे मोमेंट्स में बदल गया है। जहाँ दुल्हन की आँखों में सिर्फ आँसू होते थे, आज वहां प्रोफेशनल फोटोग्राफर ‘क्रायिंग विद स्टाइल’ पोज करवाते हैं। सब कुछ कैमरे के लेंस से तय हो रहा है, भावनाओं का स्वतः प्रवाह अब शायद ही दिखता है।
शादी का भोजन: घर के स्वाद से कैटरिंग की चमक तक
पहले शादी के भोज में घर के आँगन में मिट्टी के चूल्हों पर पकता स्वादिष्ट खाना होता था। अब 20-30 तरह के लाइव काउंटर, मल्टी कुज़ीन मेनू और इटालियन पास्ता से लेकर थाई करी तक सब कुछ मौजूद रहता है। घर के बूढ़े-बुजुर्गों द्वारा खुद बनाए गए पकवानों का स्वाद अब बड़े शेफ और केटरर्स की साजिशी मुस्कान में खो गया है।
रिवाजों की कीमत पर बनावटी तामझाम
बदलाव जरूरी है, लेकिन जब बदलाव परंपरा की आत्मा को ही निगलने लगे तो चिंता का विषय बन जाता है। आज शादी में वास्तविक भावनाएँ, अपनापन और आत्मीयता के स्थान पर दिखावा, स्टेटस सिंबल और सोशल मीडिया वैलिडेशन ने कब्जा कर लिया है। ‘ट्रेंडिंग वेडिंग’, ‘डेस्टिनेशन मैरिज’ और ‘वेडिंग थीम्स’ के नाम पर वास्तविक भारतीयता कहीं गुम हो गई है।
युवाओं की सोच: परंपरा बनाम ट्रेंड
नई पीढ़ी शादी को एक खूबसूरत इवेंट की तरह देखती है, न कि एक पवित्र संस्कार के रूप में। फेयरीटेल थीम, बीच वेडिंग और प्री-वेडिंग शूट्स में उत्साह है लेकिन इस भागदौड़ में मूल भावनाओं का स्थान कम होता जा रहा है। बहुत से युवा खुद मानते हैं कि “हमें जो अच्छा लगे वही करना चाहिए”, लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या हर अच्छा लगने वाला परिवर्तन सही भी होता है?
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खबरी की तहकीकात
शादी का बदला स्वरूप कहीं न कहीं एक बड़ी सामाजिक विडंबना को भी दर्शाता है — परंपरा से कटाव।
शादी का बदला स्वरूप कहीं न कहीं एक बड़ी सामाजिक विडंबना को भी दर्शाता है — परंपराओ को दरकिनार करना डी । अगर आज की पीढ़ी ने समय रहते पुरानी रस्मों की आत्मा को नहीं समझा तो शायद अगले कुछ दशकों में हल्दी, फेरे, विदाई जैसे शब्द सिर्फ किताबों और यूट्यूब वीडियोज़ में ही देखने को मिलेंगे। जरूरत इस बात की है कि हम आधुनिकता को अपनाएँ लेकिन अपनी जड़ों से जुड़े रहें। शादी केवल एक समारोह नहीं, दो आत्माओं और दो परिवारों का पवित्र मिलन है — और यह भावना अमर रहनी चाहिए।