खबरी न्यूज नेशनल नेटवर्क जमालपुर (मिर्ज़ापुर)।
तहसील चुनार के भुइली परगना का मौजा डवक—आज सिर्फ़ एक गाँव नहीं, बल्कि सिस्टम बनाम किसान की सबसे सच्ची कहानी बन चुका है। रकबा संख्या 398… काग़ज़ों में यह एक नंबर हो सकता है, लेकिन जिस किसान परिवार ने इस मिट्टी को अपने पसीने से सींचा, उसके लिए यही ज़िंदगी की आख़िरी उम्मीद है।

1988 का पट्टा, 2025 का संकट
वर्ष 1988—सरकारी रिकॉर्ड में स्पष्ट है कि कृषि प्रयोजन हेतु यह भूमि बाढ़ू यादव के नाम विधिवत पट्टा के रूप में दर्ज हुई। दशकों तक हल चला, फसल उगी, बच्चों की पढ़ाई हुई, घर चला।
लेकिन आज?
उसी ज़मीन को एक निजी कंपनी के नाम दर्ज कराने का आरोप—वह भी बिना सहमति, बिना सूचना। सवाल सीधा है:
क्या किसान की मेहनत काग़ज़ से कमज़ोर है?
काग़ज़ी खेल, ज़मीनी चोट
पीड़ित परिवार का कहना है कि अभिलेखों में अचानक बदलाव कर दिए गए। न नोटिस, न सुनवाई, न आपत्ति का मौका। खेत में हल चलाने वाला किसान आज दफ्तर-दफ्तर चक्कर काट रहा है।
यह कोई सामान्य विवाद नहीं—यह रोज़ी-रोटी पर सीधा हमला है।
अफसरों के दरवाज़े, लेकिन न्याय गायब
परिवार बताता है कि उन्होंने स्थानीय स्तर पर कई बार शिकायतें कीं। तहसील से लेकर संबंधित विभागों तक आवाज़ उठाई। लेकिन हर जगह वही जवाब—
“जांच चल रही है।”
जांच कब पूरी होगी? किसान तब तक क्या खाएगा?
प्रभावशाली लोग और कंपनी का दबाव—किसका सिस्टम?
आरोप गंभीर हैं। परिवार कहता है कि प्रभावशाली लोग और निजी कंपनी मिलकर दबाव बना रहे हैं।
यह सिर्फ़ भूमि का मामला नहीं, यह ताक़त के दुरुपयोग का आरोप है।
और जब ताक़त बनाम किसान होता है, तो अक्सर किसान अकेला पड़ जाता है।
चेतावनी जिसने हिला दिया इलाका
जब उम्मीद की हर खिड़की बंद दिखी, तो किसान ने वो कहा जो किसी भी सभ्य समाज के लिए अलार्म है—
“अगर न्याय नहीं मिला, तो आत्मदाह जैसा कठोर कदम उठाने को मजबूर होंगे।”
यह बयान सुनते ही पूरे क्षेत्र में सनसनी फैल गई।
यह धमकी नहीं—यह बेबस इंसान की आख़िरी चीख़ है।
ग्रामीणों की एक आवाज़—न्याय हो
गाँव के बुज़ुर्ग, युवा, सामाजिक कार्यकर्ता—सब एक स्वर में कहते हैं:
- निष्पक्ष जांच हो
- अभिलेखीय हेरफेर की जिम्मेदारी तय हो
- किसान को उसकी ज़मीन और सम्मान मिले
क्योंकि अगर आज यह परिवार टूटता है, तो कल किसी और का नंबर हो सकता है।
भूमि सिर्फ़ संपत्ति नहीं, पहचान है
शहरों में शायद ज़मीन निवेश है, लेकिन गाँव में ज़मीन पहचान है।
खेत गया तो—
- बच्चों की पढ़ाई रुकी
- घर का चूल्हा ठंडा पड़ा
- आत्मसम्मान बिखर गया
यही वजह है कि किसान आज हिम्मत और हताशा के बीच खड़ा है।
प्रशासन के सामने परीक्षा
यह मामला अब प्रशासनिक गलियारों में चर्चा का विषय है। लेकिन चर्चा से पेट नहीं भरता।
अब देखना यह है कि—
- क्या रिकॉर्ड की पारदर्शी जांच होगी?
- क्या किसान की बात सुनी जाएगी?
- या फिर फाइलों में दब जाएगा सच?


कानून क्या कहता है?
कानून साफ़ है—
- पट्टाधारी को बिना प्रक्रिया हटाया नहीं जा सकता
- अभिलेख परिवर्तन में नोटिस और सुनवाई अनिवार्य है
- जबरन कब्ज़ा दंडनीय अपराध है
तो फिर सवाल उठता है—कानून किसके लिए है?
खबरी न्यूज़ का सवाल
हम पूछते हैं—
- किस अधिकारी के कार्यकाल में अभिलेख बदले?
- किस आधार पर कंपनी का नाम दर्ज हुआ?
- किसान को क्यों नहीं सुना गया?
जवाब चाहिए। आज। अभी।
एक चेतावनी, एक उम्मीद
किसान आत्मदाह की बात कर रहा है—यह सिस्टम की हार होगी।
प्रशासन के पास अभी भी मौका है कि वह इंसानियत के साथ कानून लागू करे।
क्योंकि न्याय अगर समय पर मिल जाए, तो ज़िंदगी बच सकती है।
खबरी न्यूज़ अपील करता है—
इस मामले की तत्काल निष्पक्ष जांच हो।
पीड़ित किसान को सुरक्षा और न्याय मिले।
ताकि कोई और किसान अपनी ज़मीन बचाने के लिए मौत की बात न करे।
किसान की ज़मीन—देश की रीढ़।
रीढ़ टूटेगी, तो देश कैसे खड़ा रहेगा?
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