
✒️ — खबरी न्यूज के संपादक-इन-चीफ़ एड० के.सी. श्रीवास्तव की विशेष कलम से
- भारत में खोजी पत्रकारिता, गोदी मीडिया 2025
- सोशल मीडिया सेंसरशिप भारत, डिजिटल पत्रकारिता जोखिम
- महिला पत्रकार सुरक्षा, महिला पत्रकार भारत 2025
- पत्रकारों पर UAPA, भारत में पत्रकारों के अधिकार
- SCO में भारत की भूमिका, भारत अंतरराष्ट्रीय पत्रकारिता 2025
- पत्रकार सुरक्षा कानून भारत, स्वतंत्र मीडिया फंडिंग
- भारत में पत्रकारों पर हमले, प्रेस स्वतंत्रता भारत

🔶 पत्रकारिता दिवस—महज़ एक तारीख़ नहीं
हर वर्ष 3 मई को मनाया जाने वाला विश्व पत्रकारिता दिवस (World Press Freedom Day) न सिर्फ स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता की अहमियत को रेखांकित करता है, बल्कि उन चुनौतियों की ओर भी इशारा करता है जिनका सामना पत्रकार आज के दौर में कर रहे हैं। वर्ष 2025 की थीम “A Press for the Planet: Journalism in the Face of the Environmental Crisis” पत्रकारिता की उस सामाजिक जिम्मेदारी को रेखांकित करती है, जो पर्यावरणीय संकटों से जूझती दुनिया को सजग और जागरूक बनाए रखने की भूमिका निभा रही है।
लेकिन भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में आज पत्रकारिता जिस मोड़ पर खड़ी है, वहां सवाल उठता है — क्या पत्रकार वास्तव में स्वतंत्र हैं?
🔷 भारत में पत्रकारिता की स्थिति: बढ़ते खतरे, घटती स्वतंत्रता
भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है, लेकिन जब बात पत्रकारिता की स्वतंत्रता की आती है, तो हालात इतने उज्ज्वल नहीं दिखाई देते। Reporters Without Borders (RSF) द्वारा प्रकाशित प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत लगातार नीचे खिसकता जा रहा है।
🔹 पत्रकारों पर हमले—एक नया “नॉर्मल”
2024 के आंकड़ों के अनुसार, भारत में औसतन हर सप्ताह एक पत्रकार पर हमला होता है। कभी भीड़ के गुस्से का शिकार बनते हैं, तो कभी सत्ता की असहजता के। रिपोर्टिंग के दौरान पुलिसिया मार, फर्जी मुक़दमे, डिजिटल ट्रॉलिंग और जान से मारने की धमकियाँ—ये सब अब पत्रकारों के पेशे का अनिवार्य हिस्सा बन गए हैं।


🔷 डिजिटल युग में सेंसरशिप और सायबर हमले
🔹 सोशल मीडिया—स्वतंत्रता या फंदा?
जहां एक ओर सोशल मीडिया ने पत्रकारों को अभिव्यक्ति का मंच दिया है, वहीं दूसरी ओर यही मंच आज सबसे बड़ा निगरानी उपकरण बनता जा रहा है। सरकारी एजेंसियाँ, बॉट्स और ट्रोल आर्मी मिलकर आलोचकों को चुप कराने की रणनीति अपना रही हैं।
🔷 पत्रकारिता बनाम पीआर: एक महीन रेखा
आज भारतीय मीडिया के एक बड़े हिस्से पर कार्पोरेट घरानों और राजनीतिक दबावों की छाया है। “गोदी मीडिया” शब्द अब किसी पार्टी विशेष का विरोध नहीं, बल्कि उस पीड़ा का प्रतीक बन चुका है जो निष्पक्षता खो चुकी पत्रकारिता को लेकर आमजन अनुभव करता है।
🔹 खोजी पत्रकारिता की गिरावट
सच्चाई की तह तक जाने वाली इन्वेस्टीगेटिव रिपोर्टिंग अब बहुत कम देखने को मिलती है। जो पत्रकार सत्ता के ग़लत कार्यों को उजागर करते हैं, उन्हें या तो चुप करा दिया जाता है, या फिर सिस्टम के जरिए मानसिक और आर्थिक रूप से तोड़ा जाता है।
🔷 महिला पत्रकारों की दोहरी चुनौती
🔹 ग्राउंड रिपोर्टिंग से लेकर डिजिटल हैरेसमेंट तक
महिला पत्रकारों को न केवल ग्राउंड पर सुरक्षा का संकट झेलना पड़ता है, बल्कि ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर यौन उत्पीड़न, चरित्रहनन और मानसिक प्रताड़ना का भी सामना करना पड़ता है। रिपोर्ट बताती है कि महिला पत्रकारों को पुरुष साथियों की तुलना में तीन गुना अधिक ऑनलाइन ट्रोलिंग झेलनी पड़ती है।
🔷 पत्रकारों के लिए न्याय प्रणाली: न्याय या अन्याय?
भारत में पत्रकारों के लिए एक स्वतंत्र और त्वरित न्याय प्रणाली का अभाव है। UAPA, देशद्रोह और आईटी एक्ट जैसे कानूनों का उपयोग अक्सर उन पर किया जाता है जो सत्ताधारी वर्ग को असहज करने वाली बात कहते हैं।
🔹 बेल नहीं, जेल का सिस्टम
कई पत्रकार महीनों तक जेल में सड़ते रहते हैं बिना किसी मुकदमे की सुनवाई के। यह न केवल संविधान की मूल आत्मा के विपरीत है, बल्कि लोकतंत्र पर गहरा आघात भी है।
🔷 एससीओ और भारत: अंतरराष्ट्रीय सहयोग बनाम घरेलू चुनौतियाँ
शंघाई सहयोग संगठन (SCO) जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत सक्रिय भूमिका निभा रहा है और सूचना के आदान-प्रदान, मीडिया सशक्तिकरण और क्रॉस-बॉर्डर पत्रकार सहयोग को बढ़ावा दे रहा है। लेकिन जब वही पत्रकार भारत में अपनी आवाज उठाते हैं, तो वे सेंसरशिप और प्रताड़ना के शिकार होते हैं। यह एक ‘इंटरनेशनल फेडरलिज़्म और डोमेस्टिक साइलेंस’ का उदाहरण बन गया है।
🔶 क्रॉसहेड: “पत्रकारिता अगर डरने लगे, तो लोकतंत्र मरने लगता है”
यह कथन अब महज़ आदर्श नहीं, बल्कि कड़वी सच्चाई बन चुका है। स्वतंत्र प्रेस लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है, लेकिन यदि यही स्तंभ कमजोर कर दिया जाए, तो लोकतंत्र की इमारत टिक नहीं सकती।
🔷 समाधान की दिशा में कदम: पत्रकारों की सुरक्षा और स्वतंत्रता
🔹 मजबूत पत्रकार सुरक्षा कानून
पत्रकारों की सुरक्षा के लिए एक राष्ट्रीय स्तर का व्यापक कानून बनाया जाना चाहिए, जिसमें:
- त्वरित एफआईआर दर्ज हो,
- केस की स्पेशल फास्ट ट्रैक सुनवाई हो,
- डिजिटल ट्रोलिंग की मॉनिटरिंग के लिए स्वतंत्र निकाय हो।
🔹 स्वतंत्र मीडिया फंडिंग
सरकारी विज्ञापनों के बजाए स्वतंत्र मीडिया फंडिंग मॉडल को बढ़ावा दिया जाना चाहिए जिससे संपादकीय स्वतंत्रता सुरक्षित रहे।
🔹 मीडिया ट्रिब्यूनल की स्थापना
पत्रकारों पर लगे मुक़दमों और हमलों की जांच के लिए एक स्वतंत्र मीडिया ट्रिब्यूनल की स्थापना की जानी चाहिए।
🔶 एक उम्मीद बाकी है…
विश्व पत्रकारिता दिवस पर हमें यह आत्ममंथन करना चाहिए कि क्या हम वाकई स्वतंत्र पत्रकारिता को बचाने के लिए प्रतिबद्ध हैं? जब तक पत्रकार निडर होकर सवाल नहीं पूछ पाएंगे, तब तक लोकतंत्र केवल एक नाम भर रहेगा।
हमें यह याद रखना होगा कि पत्रकारिता सिर्फ खबर नहीं होती — यह एक ज़िम्मेदारी है, एक व्रत है, और एक संघर्ष भी। इस संघर्ष में समाज, सरकार और स्वयं मीडिया संस्थानों को साथ आना होगा।
🖋️ सम्पादक की कलम से
एड० के.सी. श्रीवास्तव
संपादक-इन-चीफ, खबरी न्यूज़

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