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- “सीमेंट के शहर में धूल फांकते सपने — डाला का असली चेहरा!”
- “जहाँ करोड़ों के प्लांट, वहीं लाखों का इंतजार — डाला में आज भी झोपड़ियाँ!”
- “बिरला का डाला चमका, लेकिन गरीबों की झोपड़ियाँ वहीं की वहीं!”
- रेक्साहा डाला , सोनभद्र — एशिया के सबसे बड़े सीमेंट प्लांट के बगल में आज भी लोग फूस के मकानों में रह रहे हैं।
- सीमेंट की धूल के बीच विकास के सपनों पर पड़ा है असली जमीनी सवाल — आखिर कब पहुंचेगा विकास अंतिम पायदान तक?

पूंजीपति बिरला के शहर डाला में विकास को मुंह चिढ़ाती झोपड़ियाँ:
डाला (सोनभद्र), खबरी एक्सक्लूसिव।
एक ओर जब देशभर में मोदी-योगी सरकार के नेतृत्व में विकास की नई इबारतें लिखी जा रही हैं, हर हाथ को आवास और हर व्यक्ति को सम्मानजनक जीवन देने की दिशा में योजनाएँ चलाई जा रही हैं, वहीं दूसरी ओर डाला, सोनभद्र जैसे इलाके एक कटु सच्चाई का आईना दिखाते हैं।
कभी उत्तर प्रदेश का रहा औद्योगिक गौरव
डाला, जिसे कभी उत्तर प्रदेश का औद्योगिक गौरव कहा जाता था, आज भी सीमेंट फैक्ट्री के साए में बसी झोपड़ियों की तस्वीर पेश कर रहा है। हैरानी की बात यह है कि सीमेंट के पहाड़ों से अटे पड़े इस क्षेत्र में, जहाँ से विकास की उम्मीदें सबसे ज्यादा थीं, वहीं पर आज भी लोग फूस और टीन के मकानों में जीवन बसर कर रहे हैं।
इतिहास की झलक: डाला से चुनार तक का सफर
डाला की सीमेंट फैक्ट्री का इतिहास गौरवशाली रहा है। सबसे पहले उत्तर प्रदेश सरकार ने “डाला सीमेंट फैक्ट्री” और “चुनार सीमेंट फैक्ट्री” के रूप में इसे एशिया के सबसे बड़े प्लांट के तौर पर विकसित किया था। सरकारी स्वामित्व में इसकी शुरुआत एक स्वर्णिम सपने के तौर पर हुई थी।
समय बीतने के साथ, इन फैक्ट्रियों को निजीकरण के तहत जेपी समूह को सौंपा गया। बाद में, बिरला समूह ने इन्हें अधिग्रहित कर लिया। बिरला के प्रबंधन के बाद लोगों को उम्मीद थी कि रोजगार, आवास और आधारभूत सुविधाओं में तेजी से सुधार होगा। लेकिन आज तस्वीर कुछ और ही बयां कर रही है।
प्रधानमंत्री आवास योजना: हकीकत और सवाल
प्रधानमंत्री आवास योजना (PMAY) के तहत ग्रामीण इलाकों में ₹1.5 लाख और शहरी इलाकों में अब ₹3.3 लाख तक की आर्थिक सहायता दी जा रही है। सोनभद्र जनपद में भी हजारों की संख्या में आवास स्वीकृत हुए और लोगों को वितरित किए गए हैं।
सरकारी आंकड़े भले ही हर व्यक्ति के सिर पर छत मुहैया कराने के दावे करते हों, लेकिन डाला में बिरला सीमेंट फैक्ट्री के बिल्कुल बगल में आज भी कई झोपड़ीनुमा मकान नजर आते हैं। इससे यह सवाल उठता है कि आखिर सरकारी सुविधाओं का लाभ इन लोगों तक क्यों नहीं पहुँच पा रहा है?
जमीन पर हकीकत: सीमेंट की धूल, गरीबी की जंजीर
सीमेंट फैक्ट्री के आसपास रहने वाले लोगों की जिंदगी बेहद मुश्किल भरी है। लगातार उड़ती सीमेंट की धूल, खराब स्वास्थ्य सुविधाएँ और कच्चे मकानों में भीषण गर्मी-सर्दी झेलते ये लोग आज भी एक बेहतर भविष्य का सपना देख रहे हैं।
स्थानीय रेक्साहा डाला निवासी आलोक कहते हैं,
हम तो यहीं पैदा हुए, यहीं बड़े हुए। सरकारें बदलती रहीं, फैक्ट्री मालिक भी बदले, लेकिन हमारी हालत जस की तस है। आवास के लिए कई बार आवेदन भी किया, पर अब तक कुछ नहीं मिला।”
रोजगार का संकट
सीमेंट फैक्ट्री के आसपास रहने वाले लोगों को उम्मीद थी कि उद्योगों के चलते स्थायी रोजगार मिलेगा, लेकिन मशीनरी आधारित उत्पादन और निजीकरण के चलते रोजगार के अवसर सिकुड़ते चले गए। नतीजा यह हुआ कि मजदूरी और छोटे-मोटे धंधों पर ही इनकी जीविका टिक गई।
डाला: विकास बनाम हकीकत
डाला जैसे क्षेत्र आज भी मूलभूत सुविधाओं जैसे स्वच्छ पेयजल, स्वास्थ्य सेवाएँ, शिक्षा और आवास के लिए तरस रहे हैं।
जहाँ एक तरफ स्मार्ट सिटी और अमृत योजनाओं के तहत शहरों के कायाकल्प की बात हो रही है, वहीं डाला जैसे इलाके सरकारी उदासीनता की गवाही देते हैं।
डाला में रहने वाली गीता देवी बताती हैं,
“यहाँ सीमेंट के ढेर हैं, पर पीने को साफ पानी नहीं। अस्पताल दूर है, स्कूल भी आधे-अधूरे हैं। अब तो लगता है विकास सिर्फ कागजों में ही होता है।”


जिम्मेदारी किसकी?
- बड़ा सवाल है कि इस स्थिति के लिए जिम्मेदार कौन है?
- स्थानीय प्रशासन?
- फैक्ट्री प्रबंधन?
- फिर वे योजनाएँ जो ज़मीन तक पूरी तरह पहुँच ही नहीं पाईं?
PMAY जैसी योजनाओं के क्रियान्वयन में भ्रष्टाचार और लापरवाही जैसे आरोप कई बार सामने आ चुके हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में आवास निर्माण के नाम पर आधे-अधूरे मकान बनवा कर छोड़ दिए जाने की शिकायतें आम हैं।
फैक्ट्री प्रबंधन की सामाजिक जिम्मेदारियों (CSR) पर भी सवाल खड़े होते हैं। क्या एक बड़े औद्योगिक घराने के तौर पर बिरला समूह को यहाँ की दुर्दशा की अनदेखी करनी चाहिए?
खबरी न्यूज़ की पड़ताल
डाला,सोनभद्र की कहानी यह दिखाती है कि सिर्फ योजनाएँ और घोषणाएँ काफी नहीं हैं। जमीन पर उनके प्रभावी क्रियान्वयन के बिना विकास अधूरा ही रहेगा।
जब देश 2047 के “विकसित भारत” के सपने की ओर बढ़ रहा है, तब डाला जैसे इलाकों की झोपड़ियों की हकीकत एक चेतावनी है कि हमें नीतियों को नीचे तक पहुँचाने की गति और गुणवत्ता दोनों में सुधार करना होगा।
अंत में यह कहना है कि जरूरत है कि डाला और इसके जैसे अन्य औद्योगिक इलाकों में रहने वाले लोगों को भी आधुनिक जीवन की बुनियादी सुविधाएँ मिलें — ताकि विकास सिर्फ सीमेंट के ऊंचे टावरों में नहीं, बल्कि हर झोपड़ी में भी दिखाई दे।
